बारिश की बूँदें खिड़की के शीशे पर टपकती जा रही थीं। ट्रेन धीमी रफ्तार से पटरियों पर सरसराते हुए चल रही थी। बाहर सब धुंधला सा दिख रहा था — जैसे किसी पुराने सपने का धुंधला चित्र। आर्या ने अपने बैग को कसकर पकड़ लिया। छोटी-सी जगह से आई थी, लेकिन सपने बड़े थे। आँखों में चमक थी, दिल में डर भी। माँ ने जाते वक़्त कहा था, “ध्यान रखना बेटा, बड़े शहरों में लोग दिल से नहीं, मतलब से मिलते हैं।” वह एक कोने वाली सीट पर बैठ गई थी। उसके पास की सीट खाली थी। उसे बस खुद से बातें करनी आती थीं — दुनिया से नहीं।
ट्रेन के अगले स्टेशन पर एक लड़का चढ़ा। भीगा हुआ, थका हुआ। उसकी आँखों में एक अजीब सी उदासी थी, जैसे ज़िन्दगी ने उसके हिस्से से सारी रौशनी चुरा ली हो। वह आया और उसी खाली सीट पर बैठ गया। “सॉरी, ये सीट खाली है न?” — उसने धीमी आवाज़ में पूछा था। आर्या ने सिर हिला दिया। कुछ बोलने का मन था, पर शब्द गले में अटक गए।
आर्या ने चुपके से उसे देखा। उसकी उम्र लगभग 27-28 साल रही होगी। गहरी आँखें, हल्की दाढ़ी, और चेहरे पर थकान का एक अजीब किस्सा लिखा था। नाम मालूम नहीं। कहानी अनकही। ट्रेन फिर चल पड़ी। खिड़की के बाहर बूँदें नाच रही थीं और अंदर दोनों के बीच चुप्पी की दीवार।
कुछ देर बाद लड़के ने जेब से एक किताब निकाली — “जिंदगी के कुछ अधूरे पन्ने”। आर्या की नजर किताब पर अटक गई। लड़के ने मुस्कुराते हुए किताब उसकी ओर बढ़ाई — “पढ़ना चाहोगी?” आर्या थोड़ी झिझकी, फिर सिर हिलाकर किताब ले ली। यह पहली बात थी। और शायद पहला दरवाजा भी।
“तुम्हारा नाम?” उसने पूछा। “आर्या। तुम्हारा?” उसने जवाब दिया। “रुद्र।” “कहाँ जा रहे हो?” आर्या ने पूछा। रुद्र ने हँसते हुए कहा, “कहीं नहीं। बस भाग रहा हूँ।” “किससे?” आर्या का अगला सवाल आया। “शायद खुद से,” रुद्र ने खिड़की से बाहर देखते हुए कहा। आर्या को हँसी आई, लेकिन उसने अपनी हँसी छुपा ली। कुछ सवाल जवाब की शक्ल में नहीं होते, वो बस दिल की धड़कनों के बीच गूँजते हैं।
रुद्र ने फिर पूछा, “और तुम?” आर्या ने कहा, “सपनों की तलाश में निकली हूँ।” खिड़की से बाहर झाँकते हुए उसकी आवाज़ में उम्मीद और डर दोनों झलक रहे थे।
ट्रेन अब एक घने जंगल के बीच से गुजर रही थी। आसमान से बिजली कड़क रही थी, और बारिश थमने का नाम नहीं ले रही थी। ट्रेन रुक गई। किसी छोटे से स्टेशन पर। “ट्रैक पर पानी भर गया है, थोड़ी देर के लिए रुकना पड़ेगा,” गार्ड की आवाज गूंजी। रात गहरी हो चली थी। घड़ी ने 11 बजा दिए थे। चारों ओर अजनबी चेहरे, अजनबी खामोशियाँ।
रुद्र ने आर्या से कहा, “चाय लोगी?” आर्या ने सिर हिलाया। दोनों प्लेटफॉर्म पर उतर आए। भीगी मिट्टी की खुशबू, गरम चाय का प्याला, और न जाने क्यों, एक अनकही सी अपनापन। चाय की चुस्कियों के बीच, दिल की परतें खुलने लगीं।
“कभी किसी से इतना प्यार किया था कि खुद को खो बैठे थे,” रुद्र ने अचानक कहा। “फिर?” आर्या ने धीमे से पूछा। “फिर वो चली गई। और मैं रह गया… अपने टुकड़ों में,” रुद्र की आवाज़ में इतनी खामोशी थी कि आर्या का दिल भी भारी हो गया। उसने कुछ नहीं कहा। बस उसकी आँखों में उस टूटे हुए इंसान के लिए दुआ भर आई।
“मुझे अपने लिए एक छोटी सी दुनिया बनानी है,” आर्या बोली। “जहाँ सिर्फ मेरा सपना हो, और कोई डर नहीं।” रुद्र उसे सुनता रहा। चुपचाप, बिना टोके। जैसे हर शब्द को दिल पर दर्ज कर रहा हो।
घड़ी ने आधी रात का घंटा बजाया। बारिश अब भी थमती नहीं थी। ट्रेन में वापस जाकर बैठने का मन नहीं था। रुद्र ने धीरे से कहा, “अगर चाहो, तो कुछ देर बात कर सकते हैं। बस यूँ ही… अजनबी होकर भी… हमदर्द बनकर।”
आर्या ने उसकी आँखों में देखा। ना कोई लालच, ना कोई उम्मीद। बस एक टूटा हुआ दिल — और एक अकेली रूह। वह चुपचाप उसके साथ चल दी। स्टेशन के पास एक छोटा सा वेटिंग रूम था। वहाँ जाकर दोनों बैठ गए। एक पुरानी लकड़ी की बेंच, एक झपकती हुई ट्यूब लाइट, और बीच में दो दिल — जो डरते भी थे, पर एक-दूसरे के पास खिंचते भी थे।
रात बढ़ रही थी। बातें भी। खुद को बिना किसी डर के खोल देना — शायद यही सबसे बड़ी बहादुरी थी। रुद्र ने कहा, “कभी-कभी अजनबियों से जो अपनापन मिलता है, वो अपनों से भी नहीं मिलता।” आर्या ने उसकी तरफ देखा और धीमे से मुस्कुरा दी।
बहुत दूर कहीं बारिश थम गई थी। पर उनके दिलों में जो तूफ़ान था — वो अब भी बरस रहा था।
रुद्र ने अपनी जिंदगी की कुछ बातें बाँटीं जो उसने कभी किसी से नहीं कही थीं। उसने बताया कैसे उसका बचपन प्यार से नहीं, तानों से भरा रहा था। कैसे पहली मोहब्बत उसकी जिंदगी का सबसे खूबसूरत सपना बनते-बनते सबसे भयानक दुःस्वप्न बन गई थी। कैसे हर दिन वो अपनी ही यादों से लड़ता था, हारता था, फिर भी सुबह उठकर एक नई उम्मीद का नाटक करता था।
आर्या ने उसे बिना टोके, बिना सवाल किए सुना। कभी-कभी कोई तुम्हारी कहानियाँ सुन ले, बिना तुम्हें सही या गलत ठहराए, तो आधा दर्द वहीं मर जाता है।
फिर आर्या ने भी अपनी किताब खोली। कैसे उसने हमेशा खुद को साबित करने के लिए संघर्ष किया। एक छोटे शहर में लड़की होना, और फिर सपने देखना — यह अपने आप में बगावत थी। उसने बताया कैसे वह आज भी अपने डर से लड़ती थी। कैसे हर रात वह खुद को दिलासा देती थी कि एक दिन उसकी मेहनत रंग लाएगी।
रुद्र उसकी बातें सुनता रहा। उसकी आँखों में एक चमक थी। ऐसा नहीं कि वह आर्या से प्यार कर बैठा था, या कि वह उसे पूरी तरह जानता था। बस… एक अपनापन था, जो खिंच रहा था।
रात के उस एक टुकड़े में, दो अजनबी अपने-अपने डर, अपने-अपने सपने, अपने-अपने टूटे हुए हिस्से बाँट रहे थे। बाहर बारिश रुक गई थी, पर अंदर एक एहसास की बारिश हो रही थी।
धीरे-धीरे प्लेटफॉर्म पर हलचल शुरू हुई। ट्रेन फिर से चलने वाली थी। दोनों उठे। चुपचाप। कुछ भी कहे बिना।
“शायद हम फिर कभी न मिलें,” आर्या ने हल्की मुस्कान के साथ कहा।
“शायद,” रुद्र ने भी मुस्कुराते हुए जवाब दिया।
लेकिन दोनों जानते थे — कुछ मुलाकातें अधूरी होकर भी पूरी होती हैं।
आर्या ने रुद्र की ओर हाथ बढ़ाया।
“दोस्त?”
रुद्र ने भी अपना हाथ आगे बढ़ाया।
“दोस्त।”
ट्रेन चल पड़ी थी। दोनों फिर अपनी-अपनी सीट पर जा बैठे। खिड़की से बाहर अंधेरे में कुछ रोशनी टिमटिमा रही थी। शायद यह रात भी कभी उनकी यादों में रोशनी बनकर रहेगी।
आर्या ने सिर टिकाया और आँखें मूंद लीं। रुद्र ने भी खिड़की से बाहर झाँका। कहीं न कहीं, दोनों के दिलों में अब एक छोटा सा कोना एक-दूसरे के लिए बन चुका था।
ट्रेन रात को चीरती हुई आगे बढ़ती रही, और उनके दिलों में अजनबी रास्तों की अनजानी बातें गूँजती रहीं।